शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

गिरीश पंकज की गज़लें

गल्प के भीतर आज की सामाजिक विसंगतियों को बुन कर आधुनिक वैताल  कथा की रचना करने वाने गिरीश पंकज गद्य लेखन में जितने सिद्धहस्त हैं, काव्यरचना में भी उतने ही पारंगत। एक जनवरी 1957 को भोले बाबा की नगरी बनारस में जन्मे पंकज ने  हिंदी साहित्य से परास्नातक की उपाधि प्राप्त की। पत्रकारिता स्नातक  परीक्षा में वे प्रावीण्य सूची मे प्रथम रहे। लोक संगीत-कला में  डिप्लोमा किया। उनके नाम  आठ व्यंग्य संग्रह, तीन व्यंग्य उपन्यास समेत कुल बत्तीस पुस्तकें हैं।  पिछले पैंतीस सालों से पत्रकारिता और साहित्य में सक्रियहैं। बिलासपुर टाईम्स, युगधर्म, नवभारत, भास्कर, स्वदेश, राष्ट्रीय हिन्दी मेल एवं खबरगढ़  में सिटी चीफ, साहित्य संपादक और संपादक पद संभालने के बाद फिलहाल स्वतंत्र लेखन। साहित्यिक पत्रिका ''सद्भावना दर्पण'' का संपादन। उनकी व्यंग्य रचनाओ पर लगभग दस छात्र लघु शोध कर चुके हैं।  इन दिनों कर्णाटक और मध्यप्रदेश के दो छात्र इनके साहित्य पर पीएच. डी कर रहे हैं। गिरीश पंकज की रचनाएँ मलयालम, तेलुगु, कन्नड़, तमिल, ओड़िया, पंजाबी एवं छत्तीसगढ़ी आदि  में भी अनूदित हो चुकी हैं। उन्हें लखनऊ का अट्टहास सम्मान, दिल्ली का रमणिका फाउंडेशन  सम्मान, भोपाल का रामेश्वर गुरू सम्मान, पंजाब  का लीलारानी स्मृति सम्मान   प्राप्त हो चुका है। ब्लॉग लेखन के लिये ''ई टिप्स''  और ''परिकल्पना''  द्वारा हाल ही में सम्मानित। रचना धर्म के ऐसे अनमोल रत्न पंकज की कुछ गज़लें पेश हैं......


1.
कोई तकरार लिक्खे है कोई इनकार लिखता है
हमारा मन बड़ा पागल हमेशा प्यार लिखता है 

वे अपनी खोल में खुश हैं कभी बाहर नहीं आते
मगर ये बावरा दुनिया, जगत, व्यवहार लिखता है

अगर हारे नहीं टूटे नहीं तो देख लेना तुम 
वो तेरी जीत लिक्खेगा अभी जो हार लिखता है

ये जीवन राख है गर प्यार का हिस्सा नहीं कोई 
ये ऐसी बात है जिसको सही फनकार लिखता है

कोई तो एक चेहरा हो जिसे दिल से लगा लूं मैं 
यहाँ तो हर कोई आता है कारोबार लिखता है

तुम्हारे पास आ जाऊं पढ़ूं कुछ गीत सपनों के
तुम्हारे नैन का काजल सदा श्रृंगार लिखता है

यहाँ छोटा-बड़ा कोई नहीं सब जन बराबर हैं 
मेरा मन ज़िंदगी को इस तरह तैयार लिखता है

अरे उससे हमारी दोस्ती होगी भला कैसे 
मैं हूँ पानी मगर वो हर घड़ी अंगार लिखता है

उधर हिंसा हुई, कुछ रेप, घपले, हादसे ढेरों 
ये कैसी सूरतेदुनिया यहाँ अखबार लिखता है

वो खा-पीकर अघाया सेठ कल बोला के सुन पंकज
ज़रा दौलत कमा ले तू तो बस बेकार लिखता है


2.

किसी को धन नहीं मिलता
किसी को तन नहीं मिलता


लुटाओ धन मिलेगा तन
मगर फिर मन नहीं मिलता


हमारी चाहतें अनगिन 
मगर जीवन नहीं मिलता


किसी के पास धन-काया
मगर यौवन नहीं मिलता


ये सांपों की है बस्ती पर
यहाँ चन्दन नहीं मिलता


जहां पत्थर उछलते हों
वहां मधुबन नहीं मिलता


मोहब्बत में मिले पीड़ा
यहाँ रंजन नहीं मिलता


लगाओ मन फकीरी में  
सभी को धन नहीं मिलता 


वो है साजों का मालिक पर
सभी को फन नहीं मिलता 


अगर हो कांच से यारी 
तो फिर कंचन नहीं मिलता


मिलेंगे लोग पंकज पर
वो अपनापन नहीं मिलता.






 पेंटिंग....उत्तमा दीक्षित, असिस्टेंट प्रोफेसर, बीएचयू
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3.


शख्स वो सचमुच बहुत धनवान है
पास जिसके सत्य है, ईमान है 

प्रेम से तो पेश आना सीख ले
चार दिन का तू अरे मेहमान है


एक खामोशी यहाँ पसरी हुई
ये हवेली है कि इक शमशान है


मुफलिसी अभिशाप है तेरे लिए
मुझको तो लगता कोई वरदान है


वो महकता है सुबह से शाम तक
जिसके भीतर नेकदिल इनसान है


बाँट दे दिल खोल कर दौलत अरे
पास तेरे गर कोई जो ज्ञान है


हो रहमदिल आदमी इतना बहुत
फ़िर तो क्या अल्लाह, क्या भगवान है


4.
मेरी जुबां पर सच भर आया
कुछ हाथों में पत्थर आया


मैंने फूल बढ़ाया हंस कर
मगर उधर से खंजर आया


उनको मिली विफलताएं तो
दोष हमारे ही सर आया


मुझे इबादत की जब सूझी
बुझता घर रोशन कर आया


थकन मिट गयी मेरी पंकज
जब मेरा अपना घर आया

 


संपादक, " सद्भावना दर्पण"
सदस्य, " साहित्य अकादमी", नई दिल्ली.
सम्पर्क----
जी-३१,  नया पंचशील नगर,
रायपुर. छत्तीसगढ़. ४९२००१
मोबाइल : ०९४२५२ १२७२०

बुधवार, 25 अगस्त 2010

जब कहता हूँ सच कहता हूँ.

अपनी गज़लों के कथ्य और भाव के लिये मदन मोहन शर्मा अरविंद की सराहना की गयी पर  गज़ल की तकनीक के अधूरेपन को लेकर उनका घिराव भी किया गया। गज़ल की दुनिया के महारथियों, सर्वत जमाल, प्राण शर्मा और संजीव गौतम  ने साखी के व्यूह में उन्हें घेरा, उन पर सधे तीर चलाये और गज़ल के बुलंद दरवाजे में दाखिल होने की जरूरतें पूरी करने की सलाह दी। मदन ने अपने बचाव में अपने तर्कों के पुष्पवाण छोड़े पर विनम्रता का प्रदर्शन करते हुए गज़ल  के मर्मज्ञ रचनाकारों से इस कला की बारीकियां सीखने की उत्सुकता भी दिखायी। सलिल जी, श्रद्धा जैन और कई अन्य रचनाकर्मियों के सार्थक  दखल ने बहस को  रोचक  और सारगर्भित बनाने में पूरी मदद की। सर्वत जमाल ने माना कि  मदन जी की गजलें अर्थ, भावाभिव्यक्ति के आधार पर मंत्रमुग्ध कर देने की हैसियत रखती हैं। ये गजलें परम्परा से हट कर, समकालीन मानवीय मूल्यों से जुड़ी हुई हैं और इन्हें पढ़ने से रचनाकार का व्यक्तित्व  काफी कुछ सामने आ जाता है पर यह भी जोड़ा कि कुछ शेरों पर थोड़ी मेहनत और की गयी होती तो नतीजा बेहतर हो सकता था। पहली गजल की रदीफ़ है---कुछ ऐसे बरस। अगर यह गजल मेरी होती तो मैं रदीफ ' हाँ अबके बरस' रखता। शर्मा जी द्वारा प्रयुक्त रदीफ़ के कारण कुछ शेर अर्थ को सीधी राह नहीं दे सके। दूसरी गजल अच्छी है,  रात सितारों वाली- हमारे सपनों, सियासत, समाज सभी के पर्याय के रूप में काम कर गयी पर 'मैं भी कितना पागल हूँ', इस गजल में शायद रचनाकार कुछ जल्दबाजी से काम ले गया। मतले में ही, "जब कहता हूँ सच कहता हूँ......"किया होता तो क्या गलत होता। उल्टा वाक्य रख कर अनूठापन पैदा करने का प्रयास सफल नहीं हुआ। चौथी गजल- मेरे लिए हैरान करने वाली है। गलती नजर की चूक हो तो नजरअंदाज़ हो सकती है, गलती बार-बार हो तो सोचना पड़ता है। " जिस्म बौछार जलाती क्यों है-ये घटा आग लगाती क्यों है", इसका वजन है-२१२२११२२२। मतले के बाद गजल के हर पहले मिसरे का वजन है- २१२२१२१२२२। लम्बे अरसे से गजल साधना में रत किसी गजलकार के लिए यह दोष निराशा पैदा करने वाला है। शर्मा जी को मेरा मशवरा है कि गजल का व्याकरण ढंग से सीख लें, सीखना तो जीवन पर्यन्त चलता रहता है।
 

प्राण शर्मा जी ने कहा, मदन मोहन शर्मा के कई शेरों के बयान स्पष्ट नहीं हैं.उनका एक शेर है -
थी फलों की आस जिनसे वो तने सड़ गल गये
हो नयी फिर से फसल तैयार कुछ ऐसा बरस
इस शेर से यह आभास नहीं होता है कि गज़लकार का इशारा पानी से
है या बादल से ? उनका एक और शेर देखिए --


बिन बुलाये गरीब की छत पर 
रोज तूफान मचाती क्यों है
इस शेर में तूफ़ान मचाने वाली कौन है ,बिलकुल स्पष्ट नहीं है। गज़लकार को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ग़ज़ल का हर शेर स्वंतत्र, अपने बयान में परिपूर्ण और स्पष्ट होना चाहिए। इस बिन्दु पर शर्मा जी ने दखल देने की कोशिश की और स्पष्ट क़िया कि पानी बरसे या बादल, फसल पर दोनों का प्रभाव एक ही होगा, वैसे भी बादल पानी ही बरसाते हैं, फिर अस्पष्टता का प्रश्न समझ में नहीं आता। गरीब क़ी छत पर तूफान मचाने वाली बरसात ही होगी। हर शेर में बरसात की पुनरावृत्ति कोई अच्छा प्रभाव उत्पन्न नहीं करती। प्राण जी ने समझाया,  गज़ल साफ-सुथरा बयान चाहती है। एक बार मैंने ये  मिसरा कहा था, वो गिरेगी, आशियां जल जायेगा। मेरे  उस्ताद ने आंखें तरेर कर पूछा, कौन गिरेगी? मैंने कहा, बिजली। उस्ताद ने कहा, जाओ मिसरे में बिजली का इस्तेमाल करो, गज़ल में किसी भी शब्द की कंजूसी करना सही नहीं। कभी कविवर राम नरेश त्रिपाठी ने कहा था, भाषा को मांजने, संवारने और स्पष्ट कविता लिखने में जितना काम उर्दू शायरों ने किया है, उतना हिंदी के कवि नहीं कर पाये।


संजीव गौतम ने कहा, अच्छी रदीफ ग़ज़ल के अधिकांश  मिजाज को तय कर देती है और रदीफ क्या है, भाषा के मुहावरे का हिस्सा। यहीं हिन्दी के अधिकांश ग़ज़लकार गलती करते हैं और उर्दू में इसी हिस्से पर सबसे ज्यादा मेहनत की गई है। ये भले ही कड़वा लगे लेकिन सच है कि हिन्दी के ऊपर हिन्दी वालों से ज्यादा मेहनत उर्दू वालों ने की है। इसी मुहावरे की कमी के कारण अरविंद जी की ग़ज़लें कुछ कमजोर कही जा सकती हैं। मिसरा पढ़ते ही उसका चित्र आंखों के सामने आ जाना चाहिए, अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो कमी है और यह कमी भाषा पर मुहावरे की कम पकड़ के कारण ही आती है। अरविन्द जी का कथ्य,  उनकी साफगोई एवं अनुभव की प्रामाणिकता  उनमें प्रभावोत्पादकता पैदा करती है लेकिन जब ग़ज़लों की बात चलती है तो कम्बख्त व्याकरण बीच में आ ही जाता है। साहित्य और छंद शास्त्र के मर्मज्ञ आचार्य संजीव वर्मा सलिल और गीतकार रूप चन्द्र शास्त्री मयंक की मौजूदगी महत्वपूर्ण रही| शास्त्री जी ग़ज़लों को पढ़कर प्रसन्न हुए जबकि सलिल जी मदन की ग़ज़लों पर दो दोहे कह गए-
मनमोहन जी की ग़ज़ल, है अनूप-जीवंत.
शब्द-शब्द में भाव हैं, सँग अनुभाव अनंत..
'सलिल' मुग्ध है देखकर, भाषिक सरल प्रवाह.
बिम्ब-प्रतीकों ने दिया, शैल्पिक रूप अथाह..


बिहारी ब्लागर यानि सलिल जी ने अपनी गंभीर उपस्थिति दर्ज कराई| उनके मुताबिक अलंकारिक प्रयोग  ग़ज़लों की सुंदरता को बढ़ा देता है| पहली गज़ल वर्तमान परिस्थिति पर एक अफसोस ज़ाहिर करती हुई, एक उम्मीद की आस लगाए बरसात से विनती करती प्रतीत होती  है। मौक़ापरस्तों और ठगों की बस्तियाँ जलाने का अनुरोध, मुल्क़ के सौदागरों को ख़त्म करने के भाव, धरती के घिनौने दाग़ धो डालने की उम्मीद और एक नई धुली, सद्यःस्नाता धरा की कामना भी है| दूसरी ग़ज़ल में  सितारों की चमक  आशावाद का प्रतीक है|  तीसरी ग़ज़ल, तो एक एलानिया बयान है कि हाँ मैं ऐसा ही हूँ, भले ही तुम्हारी दुनिया मुझे पागल समझे|  हर शेर अपने आप में एकबालिया बयान है इस शायर को पागलख़ाने में डालने के लिए।  जुर्म सिर्फ इतना कि इसने ज़माने के आदाब नहीं अपनाए| चौथी ग़ज़ल में घटा से जिस्म का जलना,  महलों को छोड़कर कच्चे घरों को गिराना, ग़रीब की छत पर तूफान मचाना और मुफलिस के सारे किये पर पानी फेर देना आम आदमी की वेदना है| सलिल जी ने कहा कि इन ग़ज़लों में एक कमी खटकती है, वो यह है कि मिसरा ए सानी को पढ़ने के बाद आपके मुँह से बेसाख़्ता वाह नहीं निकलती है और न टीस पर आह निकलती है| ग़ज़ल की सफलता पूरी तरह उस इम्पैक्ट पर मुनस्सिर है जो मिसरा ए ऊला के साथ डेवेलप होता है और मिसराए सानी के साथ क्या बात है, की बुलंदी पर ख़त्म होता है| राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा कि इन चार ग़ज़लों में चार ख़ूबसूरत शेर छांटने को कहा जाए तो मुश्किल काम साबित हो सकता है । अशआर एक से एक बेहतरीन हैं !
खुश्क मौसम को सिखा दे प्यार कुछ ऐसे बरस
आग पानी से करे सिंगार कुछ ऐसे बरस

आग का पानी से श्रृंगार, बिल्कुल नयी बात है ! वैसे  तग़ज़्ज़ुल और तख़य्युल के पैमाने पर ग़ज़लें कुछ कमजोर हैं । लगभग सपाटबयानी - सी होने के कारण शिल्प - सौष्ठव की परिपक्वता दबती प्रतीत हो रही है । हां , एक दो जगह अलंकारों की उत्पत्ति हुई है , जो सराहने योग्य है ।


श्रद्धा जैन ने ग़ज़लों की तारीफ की| उनको ये ग़ज़ल  खास तौर पर पसंद आई, और सकून समेटते हुए ग़ज़ल के मतले से मक्ते तक का सफ़र तय हुआ... 
अब ये बरसात क्यों नहीं जाती
नींद मुफलिस की उड़ाती क्यों है
उन्होंने इस गजल पर भी मदन मोहन को दिली दाद कबूल कराने को कहा...
कुछ मिटने का खौफ नहीं कुछ आदत की मज़बूरी है
जो दिल में है सब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.
 

कवि और व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने कहा, अरविन्दजी की ग़ज़लें  नए तेवर के साथ सामने आई हैं| रचनाओं के तेवर बतलाते हैं कि ये कम नहीं हैं|  कथ्य और शिल्प दोनों मोर्चे पर इनका अपना रंग है..ढंग है। ऐसे पागल ही आज के दौर को चाहिए, जो परिवर्तनकामी हों| कवि राजेश उत्साही ने कहा कि मदन जी की पहली ग़ज़ल के भाव  दोहरा अर्थ पैदा करते हैं। ऐसे बरस से जो ध्‍वनि पैदा होती है वह बारिश का आभास भी देती है और समय का भी। तीसरी ग़ज़ल पढ़कर लगता है जैसे वे हम जैसे पागलों की बात कह रहे हैं। हममें कितने लोग ऐसे हैं जिन्‍हें जब चुप रहना चाहिए तब ही बोलते हैं लेकिन जब बोलते हैं तो केवल सच बोलते हैं। असल में पागलों को ही मिटने का खौफ नहीं होता है। जिसे मिटने का खौफ न हो, वही सच्‍चाई से नहीं डरता है।
चुप रहना हो तब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ
सच कहता हूँ जब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.

कुल मिलाकर मदनमोहन जी दिल और दुनिया के बहुत नजदीक हैं। वे केवल दिल की बात नहीं करते, वे दुनिया की बात दिल से करते हैं। यही उनकी रचनात्‍मक ताकत है। 

कवि और रचनाधर्मी सुरेश यादव ने कहा कि मदन मोहन जी की गज़लें मानवीय भावों का तनाव लेकर उपस्थित हैं ,सार्थक अभिव्यक्ति के लिए बधाई| विनोद कुमार पाण्डेय ने कहा, मदन मोहन जी के भाव और शब्द चयन दोनों का कोई जोड़ नहीं| ब्लागलेखन की दुनिया में चर्चित संगीता स्वरुप, अरविन्द मिश्र, नरेंद्र व्यास, डा अमर ज्योति, वंदना जी, गज़लकार दिगंबर नासवा, गीतकार वेद व्यथित, सुनील गज्जाणी और  राणा प्रताप सिंह  की मौजूदगी ने बहस में और रंग भर दिया| 


मदन मोहन शर्मा अरविन्द ने अंत में अपनी ग़ज़ल पर बात करने के लिए साखी पर आये सभी रचनाकारों और साहित्यप्रेमियों के प्रति आभार जताया| आलोचना के बाबत उन्होंने कहा, एक प्रयोग के नजरिये से चौथी ग़ज़ल में मैंने गेयता, प्रवाह और लय का पूरा ध्यान रखते हुए बहर की पाबन्दी में थोड़ी ढील जानबूझ कर छोड़ दी| एक उस्ताद शायर की नज़रों के सिवा यह कमी सब को धोखा दे गयी|  मेरे प्रयोग का यही मकसद था| सही-गलत का फैसला मेरे जैसे नौसिखिये के लिए आसान नहीं, इस पर तो विद्वान् ही कुछ कहें तो बेहतर| प्राण शर्मा जी और सर्वत जमाल साहब के  मार्गदर्शन का लाभ मुझे जरुर मिलेगा| जिन्हें ग़ज़लें कमजोर लगीं, उनसे  निवेदन है, आशीर्वाद दें कि आगे जो  लिखूं,  अच्छा लगे| राजेश उत्साही जी, श्रद्धा जी, डॉ रूप चन्द शास्त्री मयंक जी और बिहारी ब्लॉगर साहब की टिप्पणियों में जिस प्यार और अपनेपन की खुशबू का अहसास हुआ, वह मेरे लिए किसी खजाने से कम नहीं, धन्यवाद कहकर इस अपनेपन में कमी लाने की हिम्मत मैं कैसे करूँ|  संगीता स्वरुप जी , अरविन्द मिश्रा जी, नरेंद्र व्यास जी, दिगंबर नासवा जी, आचार्य संजीव सलिल जी, सुनील गज्जानी जी और गिरीश पंकज जी ने मेरा उत्साह वर्धन किया, आप सबके असीम स्नेह के समक्ष मैं नत मस्तक हूँ|
  

अगले शनिवार को गिरीश पंकज की गज़लें 

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शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

मदन मोहन शर्मा की गज़लें.

मदन मोहन शर्मा अरविंद एक प्रखर कवि, शायर और लेखक हैं. उनका जन्म २४ अगस्त १९५८ को उत्तर प्रदेश के अंतर्गत मथुरा जनपद के ग्राम गोकुल में श्री मोती लाल मुखिया जी के यहाँ हुआ. १४ मार्च १९७४ को गृहस्थ जीवन में प्रवेश. तनावों और अभावों के बीच आगरा विश्व विद्यालय से १९७७  में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण. प्रारंभ में ब्रज भाषा में काव्य रचना की. १९८० से १९९८ तक जीविकोपार्जन के लिए पंजाब में रहना पड़ा, तब खड़ी बोली की ओर रुझान हुआ.  लेखन का क्रम १९७३-७४ से निरंतर चल रहा है. मन में जब विद्रोह का सागर उमड़ता है या करुणा की कोई लहर उठती है तो कविता अपने आप जन्म लेती है. पिछले लगभग ३५ वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ आकाशवाणी के प्रसारणों में स्थान मिलता रहा है.  विगत कुछ वर्षों में अनेक अंतर्जाल पत्रिकाओं में भी उपस्थिति दर्ज हुई है. यहां पेश हैं अरविंद की कुछ गज़लें.....


1.
खुश्क मौसम को सिखा दे प्यार कुछ ऐसे बरस
आग पानी से करे सिंगार कुछ ऐसे बरस

फूंक दे मौका परस्तों की ठगों की बस्तियां
बूंद जालिम को बने अंगार कुछ ऐसे बरस

मुल्क के सौदागरों के तन बदन पर जब गिरे
धार हो तलवार की सी धार कुछ ऐसे बरस

हर झड़ी में ताजगी  का जोश का अहसास हो
दाग धरती के धुलें इस बार कुछ ऐसे बरस

थी फलों की आस जिनसे वो तने सड़ गल गए
हो नयी फिर से फसल तैयार कुछ ऐसे बरस


2.
जाने फिर से कब आएगी रात सितारों वाली.
कितने वादे झुठलाएगी रात सितारों वाली

खिलता गुलशन छोड़ गयी थी इतना भर कह जाती
किसकी बगिया महकाएगी रात सितारों वाली.

ऐसी धरती ऐसा आंगन आगे और नहीं है
दूर गयी तो पछताएगी रात सितारों वाली.

अगवानी की जिद में कब से धूप नहीं देखी है
और कहाँ तक ले जाएगी रात सितारों वाली.

ग़म से बढ़ते रिश्तों का अहसास उसे जब होगा 
मेरी खुशियाँ लौटाएगी रात सितारों वाली.







3.
चुप रहना हो तब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ
सच कहता हूँ जब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.
 
कितने मौसम बीत चुके हैं कितने सूरज डूब गए
कब की बातें कब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.

हंसते हिलते आहें भरते कब देखा था याद नहीं
पत्थर हैं पर लब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.
 
समझ लिया क्यों दर्द मिले हैं आज दुआ के बदले में
शैतानों को रब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.
 
कुछ मिटने का खौफ नहीं कुछ आदत की मज़बूरी है
जो दिल में है सब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ.


4.
जिस्म बौछार जलाती क्यों है
ये घटा आग लगाती क्यों है

साथ अपनों के रह नहीं पाती
हाथ गैरों से मिलाती क्यों है

राज महलों पै आजमाए दम
कच्ची दीवार गिराती क्यों है

बिन बुलाये ग़रीब की छत पर
रोज तूफान मचाती क्यों है

अब ये बरसात क्यों नहीं जाती
नींद मुफलिस की उड़ाती क्यों है 



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संपर्क: 09897562333
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बुधवार, 18 अगस्त 2010

हाथ में पत्थर लिए जब लोग सारे आ गए

श्रद्धा जैन की गज़लों पर जम कर बात हुई। नयी कविता के जाने-माने नाम अरुन  देव को छोड़कर बाकी सबने श्रद्धा जी की गज़लों में नयी आवाज और नया आकाश देखा। अरुन को कुछ शेर पसंद आये, कुछ नहीं पर क्यों पसंद नहीं आये, यह उन्होंने नहीं बताया। हाथ में पत्थर लिये... और ये लम्स तेरा... ज्यादातर लोगों के दिल में उतर गये. गज़लों की दुनिया को नये तेवर देने वाले सर्वत जमाल, बिहारी ब्लागर उर्फ सलिलजी और डा त्रिमोहन तरल ने विस्तार से श्रद्धा की गजलों की छानबीन की।  सर्वत का ख्याल है कि श्रद्धा की सबसे बड़ी खूबी अगर तलाश करने की कोशिश की जाए तो यह बहुत मुश्किल काम होगा. आसान जबान को खूबी बताया जाए, विषय (कंटेंट) को खूबी गिना जाए, कहने के अंदाज़ की तारीफ की जाए, फैसला करना मुश्किल है. एक बात जरूर है, श्रद्धा की कोई भी गजल, पढ़ने वाले को एक फौलादी गिरफ्त में जकड़ लेती है. अगर आप चाहें भी तो श्रद्धा का एक मतला या एक शेर पढ़कर गजल से हट नहीं सकते. गजल बिना खत्म हुए आप को हटने नहीं देगी. इन सबके बावजूद श्रद्धा को अभी और मिट्टी खोदनी होगी, बहुत सी खाइयां पाटनी होगीं, बहुत से रास्तों को अपने हक में हमवार करना होगा. डॉ. सुभाष राय का आभार प्रकट करना पड़ेगा जिन्होंने यत्र-तत्र-सर्वत्र छिटके हुए रचनाकारों को 'साखी' के माध्यम से एक मजबूत प्लेटफ़ॉर्म दिया है. 

सलिल का अंदाजे-बयां इस बार बदला हुआ नजर आया. वे अपनी जुबान भूल गये  और इसके लिये श्रद्धा को जिम्मेदार ठहराया, उनके आधे नम्बर भी काट लिये. बोले, हिज्र के रंग से सराबोर ग़ज़ल, क़ाफिया “छोड़ गया” इसी जज़्बे की तर्जुमानी करता है. मतला बाँध लेता है
अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
वो मेरी मेज़ पे, अपनी किताब छोड़ गया
ग़ज़ल के सारे शेर एक रूमानियत में डूबे हैं और यहाँ हिज्र का रंग, दर्द से ज़्यादा मोहब्बत का असर पैदा करता है. यहाँ विसाले यार की उम्मीद हर शेर के पसेमंज़र में दिखाई देती है. हर शेर एक से बढकर एक.  मतला सारे रूमानी सिम्बल लिए महबूब के अफसानों का एलान कर रहा है. पर इस रोमांटिसिज़्म में थोड़ा फलसफा भी शामिल है. मसलन, रूह और जिस्म की गुफ्तगू, आँसुओं के सींचे दरख़्त पे खारे फलों की बात, लेकिन दो शेर अलग से खींचकर बाँध लेते हैं...
हमको भी अपनी मुहब्बत पर हुआ तब ही यकीं
हाथ में पत्थर लिए जब लोग सारे आ गए
और
उम्र भर फल-फूल ले, जो छाँव में पलते रहे
पेड़ बूढ़ा हो गया, वो लेके आरे आ गए
जहाँ एक ओर पत्थर हाथ में लिए ज़माने का ज़िक्र है और दूसरी ओर बूढे पेड़ को काटने के लिए आरे लिए इंसानों की ज़हनियत. मक़्ते पर तो बस इतना ही कहना काफी होगा कि ये शरारे नहीं शोले हैं.
 

इस ग़ज़ल की ख़ूबसूरती अलग से निखर के सामने आती है. यहाँ हर शेर अपनी एक अलग पहचान रखता है. और यहाँ प्रतियोगिता है कि कौन बेहतर है. अक्सर ग़ज़ल के मुख़्तलिफ़ शेर मुख्तलिफ़ बयान होते हैं. श्रद्धा जी कि इस ग़ज़ल में सारे शेर अलग अलग तरह से एक ही बात की ओर इशारा कर रहे हैं और वो बात है एक आशिक़ (या माशूक) का अपने बिछड़े माशूक (या आशिक़) के लिए त्याग का जज़्बा, या फिर टूटे हुए दिल से दुआ देना. चाहे वो आँखों में आँसू लिए हौसला देना हो, बारिशों में पत्ते बनकर उड़ जाने वाले परिंदों को छाँव मुहैया कराना हो, अच्छा होगा कह कर ख़ुद को दगा देना हो, सारी ख़ुशियाँ उसके पते पर रुख़सत करना हो, ख़ुद से साथीके मिलने की दुआ हो या तमाम बंदिशों के बावजूद ख़ामोश सदा देना हो. एक शेर जो बाकियों से मुख्तलिफ बयानी करता है अलग से ख़ूबसूरत लगता हैः
मेरे चुप होते ही, किस्सा छेड़ देते थे नया
इस तरह वो गुफ़्तगू को, सिलसिला देते रहे.
उन्होंने कहा, सारी गज़लें बाबहर हैं और गाई जाने वाली हैं.हमारी तरफ से 10 में से 9.5 अंक.
 

डा तरल ने श्रद्धा की ग़ज़लों में  रवायती और जदीद शायरी के फूलों से सजाया गया एक बेहतरीन गुलदस्ता देखा। कहा, ग़ज़लकार के रूप में मैं ख़ुद पारम्परिक एवं आधुनिक तत्वों के स्वस्थ संतुलन का सबल पक्षधर हूँ। चिंतन के वृक्ष की नवीनतम कोपलें सबसे ऊपर और गगन उन्मुखी तो हो सकतीं हैं मगर उन्हें ऐसा बने  रहने के लिए खाद पानी तो जड़ों के माध्यम से ही प्राप्त करने होंगे। माँ कितनी ही बूढ़ी  क्यों न हो जाए अपनी युवा संतति को कुछ न कुछ सिखाने की स्थिति में हमेशा रहती है। श्रद्धा ने जिस खूबसूरती से रूमानी हकीक़त या हक़ीकी रूमानियत को अपने अशआर में पेश किया है वो वाकई काबिले तारीफ़ है। पहली ग़ज़ल के मक़ते में हिज्र देखने वाले हिज्र देखने के लिए आजाद हैं, मुझे तो इसमें उस मुहब्बत के आगाज़ का बड़ी तहज़ीब से किया गया एक खूबसूरत इशारा दिखाई दे रहा है जिसका अंजाम वस्ल भी हो सकता है :
अजीब शख्स  था आँखों में ख्वाब छोड़ गया
वो मेरी मेज पे अपनी किताब छोड़ गया
ध्यान रहे अभी ख्वाब टूटा नहीं है अभी तो ख्वाब की शुरुआत है। दूसरी ग़ज़ल के शेर दौरे हाज़िर के हालात से रूबरू कराते हुए ग़ज़ल को सीधे जदीद शायरी से जोड़ते हैं:
हमको अपनी मुहब्बत पर हुआ तब ही यकीं
हाथ में पत्थर लिए जब लोग सारे आ गए
आनर किलिंग  वाली आज की ज्वलंत सामाजिक समस्या पर सीधा प्रहार तो दिखता ही है, पुरानी पीढ़ी के प्रति हमारी नयी पीढ़ी की अहसान फरामोशी पर उँगली भी उठती नजर आती है। बहर-ओ-वज्न पर पर्याप्त पकड़ बना चुकीं श्रद्धा के पास ग़ज़ल कहने का सभी ज़रूरी साज़-ओ-सामान मौजूद है।
 

शायर ओम प्रकाश नदीम ने कहा, श्रद्धा जी की गजलें पढ़कर सुखद अनुभूति हुई। उनके शेर कहने का ढंग बहुत अच्छा है। ये लम्स तेरा... बिल्कुल नये अन्दाज में कहा गया शेर है। उनकी शायरी का कैनवस काफी बड़ा है। उनमें बहुत सम्भावनाएं निहित हैं। उम्मीद है आगे भी इसी तरह की उम्दा गजलें पढने को मिलेंगी। गजलकार नीरज गोस्वामी ने कहा, श्रद्धा जी की  दिलकश गजलों को पढ़ना एक अनुभव से गुजरने जैसा होता है. सलीके से अपनी बात कहने का उनका अपना एक अलग अंदाज़ है...उनकी ग़ज़लों में से किसी एक शेर को कोट नहीं किया जा सकता, क्यूँ कि  सारी ग़ज़लें और उनमें आये अशआर बेशकीमती, लाजवाब और अनूठे होते हैं...शुक्रिया उनकी बेहतरीन शायरी हम तक पहुँचाने के लिए. 

गजलकार संजीव गौतम ने कहा,  पिछले वर्ष ब्लाग जगत में ग़ज़लों में कई नामों से परिचय हुआ। प्रकाष अर्ष, वीनस केसरी, रविकांत पाण्डेय, अंकित सफर, श्रद्धा जैन। इन सबमें श्रद्धा जी ने बहुत कम समय में अपना एक मेयार कायम किया है। वे अन्यों से मीलों आगे हैं। उनके व्यक्तित्व की एक और खासियत है जिसके कारण वे आज इस मुकाम पर हैं, वह है हर प्रकार की टिप्पणी को सहजता से लेने और ज्ञान जहां से भी मिले उसे समेटने का गुण। उनकी ग़ज़लों की खुश्बू दूर तक और देर तक कायम रहेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। श्रद्धा जी की ग़जलों को पढ़कर उन्हें अशआर याद आया-
गिजाल, चांदनी, सन्दल, गुलाब रखता है।
वो एक शख्स भी क्या-क्या खिताब रखता है।
मशहूर रचनाकार अविनाश वाचस्पति का निराला अंदाज फिर दिखायी पड़ा, वैसे तो सभी ताजातरीन हैं पर यह तो बेहतरीन है..
हमको भी अपनी मुहब्बत पर हुआ तब ही यकीं
हाथ में पत्थर लिए जब लोग सारे आ गए
वे बोले, पत्‍थर भी खुश हो रहे होंगे कि सिर फोड़ने से इतर अब यकीं दिलाने के लिए हमारा इस्‍तेमाल होने लगा है। ऐसे पत्‍थरों से सिर नहीं फूटा करते बल्कि मुहब्‍बत करने वाले पत्‍थरों के प्रति श्रद्धावनत हुआ करेंगे। बिना हेलमेट धारण किए पहुंच जाया करेंगे, और इससे अच्‍छा सच्‍चा यकीन का कोई और तरीका क्‍या होगा ? 


मशहूर रचनाकार रवीन्द्र प्रभात ने कहा, अगर सच पूछिये तो श्रद्धा जी की गज़लें मुझे बहुत पसंद है , जब भी कुछ बढ़िया पढ़ने की इच्छा होती है कविता कोश में श्रद्धा जी की ग़ज़लों को बांच लेता हूँ. कवि डा महाराज सिंह परिहार का मानना है कि श्रद्धा जी की गजलें काबिले तारीफ है। उन्‍होंने अपनी निजी अनुभूतियों को अनूठे अंदाज में प्रस्‍तुत किया है। उनकी गजल में संयोग और वियोग की जुगलबंदी भी दिखाई देती है। लेखक और कवि गिरीश पंकज ने कहा, श्रद्धा की अच्छी रचनाओं के कारण उनके प्रति श्रद्धा टपकती है. मुकेश पोपली के अनुसार श्रद्धा की एक-एक ग़ज़ल श्रद्धा पूर्ण है, एक आग है जो इन शोलों से उठती है, एक राग है जो दिल का दर्द सुनाती है। वन्दना जी के मुताबिक श्रद्धा जी ने ज़िन्दगी के हर पहलू को छुआ है अपनी गज़लों मे। अनामिका जी ने कहा कि श्रद्धा जी की लेखनी कमाल की है. सारी गजलें बहुत उम्दा हैं. विनोद कुमार पांडेय को पछतावा है, श्रद्धा को इतना देर से पढ़ना शुरू  करने का. एक से बढ़कर एक शेर. शायर अशोक का कहना है कि श्रद्धा जी की गज़लें  हर गज़ल प्रेमी के दिल को बाँध लेती हैं, ऐसी गज़लें, जिसके किसी भी शेर को आप
न पढ़ने की चूक नहीं कर सकते. कनाडा से समीर लाल जी, बन्धुवर जाकिर अली रजनीश, मदन मोहन शर्मा अरविंद, शहरोज, वेद व्यथित, राजेश उत्साही, राणा प्रताप सिंह, अदा जी और् सुलभ जी की मौजूदगी ने मजलिस को और रौशन किया.  


श्रद्धा जैन  ने वैसे तो सबके प्रति आभार जताया पर सलिल जी को खास याद फरमाया, क्या कहूँ जिस तरह आपने मेरी गजलों का विश्लेषण किया है उसकी रूह तक पढ़ी है, एक एक शब्द पर आपकी टिप्पणी. बस इतना ही कहूँगी कि मेरा ग़ज़ल लिखना सार्थक हो गया .चर्चाकार संगीता स्वरूप को  वैसे तो श्रद्धा जी की गजलें बेहद पसंद हैं, पर एक शेर बहुत लाजवाब लगा,
धूप खिलते ही परिंदे, जाएँगे उड़, था पता
बारिशों में पेड़ फिर भी, आसरा देते रहे .
उन्होंने साखी की इस प्रस्तुति को चर्चा मंच पर 17 अगस्त को पुनर्प्रस्तुत करके हमारा दिल जीत लिया. 








 


अगले शनिवार को मदन मोहन शर्मा अरविंद की गजलें 
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शनिवार, 14 अगस्त 2010

श्रद्धा जैन की गजलें

मैं मुहब्बत हूँ, मुहब्बत तो नहीं मिटती है... एक ख़ुश्बू हूँ, जो बिखरूँ तो सबा हो जाऊँ, यह आवाज लगाने वाली शख्सियत को गजल की दुनिया में कौन नहीं जानता।  8 नवंबर 1977 को जन्मी श्रद्धा जैन अपनी सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों के लिए पूरे देश में मशहूर विदिशा और भोपाल में बचपन और प्रारंभिक शिक्षा के दिन बिताने के बाद आजकल सिंगापुर में रहती हैं। वहां वे ग्लोबल इंटरंनेशनल स्कूल में शिक्षिका  हैं। उनकी भीगी-भीगी गजलें जिस अंदाज में दिल को छूती हैं, वह अपने-आप में अनूठा है। उनकी गजलें बड़े प्यार से सहलातीं हैं, अपनी तीखी कशिश से धड़कनें बढ़ा देती हैं और फिर अपने साथ बहा ले जाती हैं। फिर आप के पास हर शेर की बेचैनी भरी आग के साथ दहकने और जलने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता। जदीद शायरी का नया अदबी निजाम गढ़ने वाले कुछ गिनती के लोगों में श्रद्धा जैन का नाम शुमार करना गलत नहीं होगा। हर नया जख्म उनकी गजल की जमीन तैयार करता है.. मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो, अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते। उनकी कुछ गजलें यहां पेश हैं---    

१.
अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
वो मेरी मेज़ पे, अपनी किताब छोड़ गया

नज़र मिली तो अचानक झुका के वो नज़रें
मेरे सवाल के कितने जवाब छोड़ गया

उसे पता था, कि तन्हा न रह सकूँगी मैं
वो गुफ़्तगू के लिए, माहताब छोड़ गया

गुमान हो मुझे उसका, मिरे सरापे पर
ये क्या तिलिस्म है, कैसा सराब छोड़ गया

सहर के डूबते तारे की तरह बन 'श्रद्धा'
हरिक दरीचे पे जो आफताब छोड़ गया
 
2.
फूल, ख़ुशबू, चाँद, जुगनू और सितारे आ गए
खुद-ब-खुद ग़ज़लों में अफ़साने तुम्हारे आ गए

रूह को आदाब दिल के, थे सिखाने पर तुले
पर उसे तो ज़िस्म वाले सब इशारे आ गए

आँसुओं से सींची है, शायद ज़मीं ने फ़स्ल ये
क्या तअज्जुब पेड़ पर ये फल जो खारे आ गए

हमको भी अपनी मुहब्बत पर हुआ तब ही यकीं
हाथ में पत्थर लिए जब लोग सारे आ गए

उम्र भर फल-फूल ले, जो छाँव में पलते रहे
पेड़ बूढ़ा हो गया, वो लेके आरे आ गए

मैंने मन की बात ’श्रद्धा’ ज्यों की त्यों रक्खी मगर
लफ्ज़ में जाने कहां से ये शरारे आ गये 





३.
पलट के देखेगा माज़ी, तू जब उठा के चराग़
क़दम-क़दम पे मिलेंगे, मेरी वफ़ा के चराग़

नहीं है रोशनी उनके घरों में, जो दिन भर
सड़क पे बेच रहे थे, बना-बना के चराग़

कठिन घड़ी हो, कोई इम्तिहान देना हो
जला के रखती है राहों में, माँ दुआ के चराग़

ये लम्स तेरा, बदन रोशनी से भर देगा
किताब-ए-ज़िस्म को पढ़ना, ज़रा बुझा के चराग़

करो जो इनसे मुहब्बत, तो हो जहाँ रोशन
यतीम बच्चे नहीं, ये तो हैं ख़ुदा के चराग़

उजाला बाँटना आसान तो नहीं 'श्रद्धा'
चली हैं आँधियाँ जब भी रखे जला के चराग़ 

४.
हँस के जीवन काटने का, मशवरा देते रहे
आँख में आँसू लिए हम, हौसला देते रहे.

धूप खिलते ही परिंदे, जाएँगे उड़, था पता
बारिशों में पेड़ फिर भी, आसरा देते रहे

जो भी होता है, वो अच्छे के लिए होता यहाँ
इस बहाने ही तो हम, ख़ुद को दग़ा देते रहे

साथ उसके रंग, ख़ुश्बू, सुर्ख़ मुस्कानें गईं
हर खुशी को हम मगर, उसका पता देते रहे

चल न पाएगा वो तन्हा, ज़िंदगी की धूप में
उस को मुझसा, कोई मिल जाए, दुआ देते रहे

मेरे चुप होते ही, किस्सा छेड़ देते थे नया
इस तरह वो गुफ़्तगू को, सिलसिला देते रहे

पाँव में जंज़ीर थी, रस्मों-रिवाज़ों की मगर
ख़्वाब ‘श्रद्धा’ उम्र-भर फिर भी सदा देते रहे 
 
श्रद्धा जैन के ब्लाग 



shrddha8@gmail.com

तस्वीर ..हेमंत शेष

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

कभी मेयार से नीचे न गिरना

साखी पर मशहूर शायर ओम प्रकाश नदीम की गज़लों ने जिस तरह सबका ध्यान खींचा, वह इस बात का संकेत है कि जीवन के बीच से उठाये गये कलात्मक बिम्बों के प्रति रचनाकारों और साहित्यप्रेमियों का आकर्षण अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ अभी बना हुआ है। कोई भी अच्छी रचना अपनी पहचान खुद ही करा लेती है, वह पढ़ने या सुनने वालों से आत्मीय होकर बात करती है और उन्हें अपना बना लेती है। गजल की दुनिया में जाने-माने नाम, प्राण शर्मा, श्रद्धा जैन, गिरीश पंकज, नीरज गोस्वामी, हरकीरत हीर  जैसे रचनाकारों ने नदीम साहब को अदब की दुनिया के एक रोशन चिराग की तरह देखा और उनकी गज़लों की मुक्तकंठ से सराहना की. श्रद्धा जैन तो नदीम की गज़लों के मधु-तिक्त स्फोट से इतनी आह्लादित दिखीं कि एक-एक शेर पर अलग-अलग टिप्पड़ी करने से अपने को रोक नहीं पायीं। उन्होंने कहा, कमाल की गजलें हैं, शानदार, हर शेर बरसों तक जेहन में गूंजने वाला। उन्होंने शुभकामना दी कि साखी का कारवां बस इसी तरह चलता रहे। गिरीश पंकज ने कहा, अरसे बाद मैने इतनी प्यारी,दिल में उतरने वालीं गजलें पढ़ी। नीरज गोस्वामी ने कहा, हर शेर ऐसा है कि बार-बार पढ़िए और पहले से ज्यादा लुफ्त उठाइए...एक दम अलग अंदाज़ और ज़ज्बात की बेहतरीन पेशकश बहुत कम कलाम में नज़र आती है लेकिन नदीम साहब की सभी ग़ज़लों में ये हुनर खूब नज़र आया है। .इस लाजवाब शायर के सम्मान में सर झुकाता हूँ और आपका, उनकी शायरी हम तक पहुँचाने के लिए, दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। प्राण शर्मा ने कहा, नदीम साहब के सभी शेर एक से बढकर एक हैं, सीधी-सादी जुबां है और गहरे भाव हैं। हीर ने कहा, हर शे'र गहराइयों से जुड़ा हुआ, ज़िन्दगी को आइना दिखलाता सा। बहुत कुछ सीखने को मिला इनकी ग़ज़लों से। 

इस बहस में अनेक मान्य रचनाकारों ने अपनी मौजूदगी दर्ज की। रविन्द्र प्रभात का मानना है कि ओम प्रकाश नदीम की गज़लें उम्दा होती हैं, कथ्य और बिंब में गज़ब का तारतम्य होता है और बज्नो-बहर की बात मत पूछिए वो इनकी ग़ज़लों की सबसे बड़ी विशेषता होती है, खासकर यह शेर मुझे बहुत पसंद आया--

चुप रहा तो घुट के रह जाएगा जीने का मजा, 
रोया तो बह जाएगा सब अश्क पीने का मजा। 
समीर लाल जी का कहना है, बहुत ही जबरदस्त रहीं सभी गज़लें और एक शेर जो मेरी डायरी में उतर गया-- 
 बहुत कम में बहुत कुछ है हमारे गाँव में अब भी,
 भले बिजली न सड़कें हैं न ही अखबार मिलता है। 
संजीव  गौतम ने कहा,  नदीम सर की ग़ज़लें सर चढ़कर बोलती हैं उनके व्यक्तित्व की तरह। मुझे नहीं लगता कि इन पर मुझ जैसे नौसिखये को कुछ कहना चाहिए। मैं तो इनसे प्रेरणा ग्रहण करता हूं। मदन मोहन शर्मा अरविन्द ने कहा, कभी चुप रहना कुछ बोलने से अधिक कारगर रहता है. नदीम जी की ग़ज़लें मुझे कुछ बोलने की मोहलत भी नहीं दे रहीं। सुनील गज्जाणी ने उम्दा ग़ज़लों के लिए साखी का साधुवाद किया और गजलों के नयेपन की ओर इंगित किया। वेद व्यथित की नजर में इन गजलों में बहुत सुन्दर रिदम है, रवानगी है और सहजता  है। अविनाश वाचस्पति अपनी काव्यमय प्रतिक्रिया के साथ हमारा उत्साह बढ़ाने के लिये हमारे बीच उपस्थित रहे। बिहारी बाबू यानि सलिल जी अपने अन्दाज में जब गजलों की बात करते हैं तो सबहन के मजा आ जाला। उन्होंने कहा, ई साखी त हमको सीप का जईसा बुझाता है जिसमें से एक से एक मोती निकल कर सामने आता है..ओम प्रकाश नदीम जी को हमारा प्रणाम।
भरे बाजार से अक्सर मैं खाली हाथ आता हूँ
कभी ख्वाहिश नहीं होती कभी पैसे नहीं होते
एक आम आदमी का बेदना इस सेर में देखाई देता है। आनंदित हो गए हम!


राजेश उत्साही ने लिखा, नदीम जी की शायरी उद्वेलित करती है। उनकी शायरी पर कहने को कुछ नहीं है। हां गुनने को बहुत कुछ है। अपनी बात को कहने का उनका अंदाज निराला है। पर उनकी शायरी के बहाने मैं यहां कुछ और कहना चाहता हूं। उनकी शायरी पढ़कर अगर दिल खुश हो गया,मन खुश हो गया या आनंद आ गया जैसी ही प्रतिक्रिया आप दे पा रहे हैं तो समझिए आप उनकी शायरी की आत्‍मा तक नहीं पहुंचे। बस शब्‍दों के चयन और बेहतर संयोजन को देखकर ही वापस लौट गए हैं। नदीम जी की शायरी जिन्‍दगी की जद्दोजहद से रूबरू कराती है, उसकी छटपटाहट को महसूस करने की जरूरत है। मुझे लगता है जितनी मेहनत से रचनाकार लिखता है, उतनी ही मेहनत से उस पर टिप्‍पणी लिखने वालों को करना चाहिए। अन्‍यथा न लें, मन खुश हुआ,दिल खुश हुआ जैसे शब्‍द पढ़कर लगता है जैसे हम प्रशंसा कर रहे हैं या लानत भेज रहे हैं। ध्यान रखियेगा राजेश जी ने कहा है, अन्यथा न लेंडा सी पी राय ने कहा, नदीम जी चारों गजलें बहुत अच्छी है। एक एक शेर पूरी गजल है। शारदा अरोरा को यह शेर बहुत पसन्द आया--

ये रिश्ता हर सफ़र हर मोड़ पर हर बार मिलता है, 
तुम्हारी हर कहानी में मेरा किरदार मिलता है। 

राजीव भरोल और राणा प्रताप सिंह को भी गजलें भायीं। संगीता स्वरूप जी ने इन गजलों की प्रशंसा तो की ही, उन्हें 10 अगस्त को चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर भी लिया। उन्हें साखी परिवार की ओर से आभार।  


 ओम प्रकाश नदीम साहब ने अपने प्रति दिखायी गयी इस आत्मीयता के लिये सभी गजलकारों, रचनाकारों और संवेदनशील साहित्यप्रेमियों के प्रति विनम्रतापूर्वक आभार जताया. उन्होंने सबके लिये एक शेर अर्ज किया---

कभी मेयार से नीचे न गिरना आइना हो तुम
अगर गिरना ही पड़ जाये तो चकनाचूर हो जाना.



शनिवार को साखी पर श्रद्धा जैन की गजलें 
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शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

ओम प्रकाश नदीम की गज़लें

जिंदादिली, मुश्किल से मुश्किल हालात की भी परवाह किये बगैर अपनी ऊंची परवाज कायम रखने की महारत और बेबाकी से अपनी बात कहने की कुव्वत, ये कुछ ऐसी  खासियतें हैं, जिनसे एक शख्सियत की तामीर होती है और वो शख्सियत है मशहूर शायर ओम प्रकाश नदीम। गहरी से गहरी बात को भी आसान लफ्जों में बयां करने का हुनर अगर कोई सीखना चाहे तो हाजिर हैं जनाब नदीम साहब। उनकी शायरी की सबसे बड़ी बात है, वक्त के साथ उनका कदम-ताल, जैसे समय उनके शब्दों में उतर कर बोलता हो। 26 नवम्बर 1956 को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर कस्बे में जन्मे नदीम जी छात्र जीवन में सीटू में सक्रिय रहे और वर्तमान में इप्टा के प्रदेश उपाध्यक्ष हैं। सम्प्रति वे कानपुर देहात में लेखा परीक्षा विभाग में अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। पेश हैं ओम प्रकाश नदीम की  कुछ गज़लें......  
1. 
नजर आते हैं जो जैसे वो सब वैसे नहीं होते
जो फल पीले नहीं होते वो सब कच्चे नहीं होते

जहां जैसी जरूरत हो वहां वैसे ही बन जाओ
अगर ऐसे ही होते हम तो फिर ऐसे नहीं होते

भरे बाजार से अक्सर मैं खाली हाथ आता हूँ
कभी ख्वाहिश नहीं होती कभी पैसे नहीं होते

न होते धूप के टुकड़े न मिलता छाँव को हिस्सा
अगर पेड़ों पे इतने एकजुट पत्ते नहीं होते

मरासिम जिन्दगी के पेड़ पर पत्तों के जैसे हैं
तअल्लुक तोड़ने से फूल फल अच्छे नहीं होते

शरारत जिनके सीने पे हमेशा मूंग दलती है
वो आँगन काटता है घर में जब बच्चे नहीं होते

 २.
ये रिश्ता हर सफ़र हर मोड़ पर हर बार मिलता है
तुम्हारी हर कहानी में मेरा किरदार मिलता है

नयी कलमी तिजारत का ये फल हासिल हुआ हमको
कि हर मौसम में अब हर फल सरे बाज़ार मिलता है

मेरी कमजोर हालत का असर सब पर हुआ कैसे
मैं जिसके पास जाता हूँ वही बीमार मिलता है

बहुत कम में बहुत कुछ है हमारे गाँव में अब भी
भले बिजली न सड़कें हैं न ही अखबार मिलता है

कम अज कम आज तो आवारगी की छुट्टी कर देते
बड़ी मुश्किल से हफ्ते भर में इक इतवार मिलता है

हवा के रुख बदलने की खबर उड़ने से पहले ही
वो अपना रुख बदलने के लिए तैयार मिलता है

३.
ये न समझो ऐसा वैसा वास्ता सूरज से है
ये सफ़र ऐसा है अपना सामना सूरज से है

हम सितारों की तरह छोटे हैं तो छोटे सही
झूठ क्यों बोलें हमारा सिलसिला सूरज से है

ये न सोचो रात भर करना पड़ेगा इन्तजार
बस ये समझो रात भर का फासला सूरज से है

बेतवज्जो हो गयी उसके चिरागों की चमक
इस कदर वो इसलिए शायद खफा सूरज से है

रात में दरिया किसी को क्या दिखा पायेगा अक्स
ये सिफत पानी की मिस्ले-आइना सूरज से है

चिलचिलाती धूप ही लाती है पेड़ों के करीब
साये में दो पल ठहरने का मजा सूरज से है

धूप खाने में कहीं पानी न मर जाए नदीम
हमको अंदेशा इसी नुकसान का सूरज से है


 







४.
चुप रहा तो घुट के रह जाएगा जीने का मजा
रोया तो बह जाएगा सब अश्क पीने का मजा

मुफ्त में राहत नहीं  देगी हवा चालाक है
लूट कर ले जायेगी मेरे पसीने का मजा

साल भर तक एक ही  मौसम न रास आएगा अब
अब जरूरत बन चुका है हर महीने का मजा

एक मंजिल और हर मंजिल के बाद आयी नजर
रफ्ता-रफ्ता हो गया काफूर जीने का मजा

वो न हो तो प्यास की हालत ही होती है कुछ और
पशोपस में ही पड़ा रहता है पीने का मजा

लुत्फ़ मंजिल तक पहुँचने की ललक में है नदीम 
ख़त्म हो जाता है साहिल पर सफीने का मजा 


संपर्क
५ डी/२५, वृन्दावन योजना, रायबरेली रोड, लखनऊ 
फोन-०९४५६४६०६५९ 

तस्वीरें जयपुर के प्रसिद्ध कवि और लेखक हेमंत शेष के सौजन्य से. हेमंत का ई.मेल पता है......
hemantshesh@gmail.com

बुधवार, 4 अगस्त 2010

कविता की चीख भी समझें

'अरुणा के अल्हड़ मन की सहज अभिव्यक्तियाँ सामने आयीं। जैसे कविता के विशाल उपवन में कोई ताज़ा कली अचानक-अनायास खिलकर सुगंध को शब्दों की बयार में घोलकर पूरे उपवन को अपनी ताज़गी का अहसास करा रही हो। कविता में जब सारे मुद्दे चुक जाते हैं तब प्रेम शाश्वत मुद्दे के रूप में हमारे सामने आता है और हर बार नया रूप लेकर। ऐसा ही नया रूप दिखाई दिया है इस नवोदित  कवयित्री की इन कविताओं में', यह विचार जाने-माने रचनाकार डा. त्रिमोहन तरल के हैं।  अरुणा की कविताओं पर बात करते हुए वे आगे कहते हैं, मानवीय व्यवहार की संवेदनशून्यता को अभिव्यक्ति तो उनकी तीनों कवितायें दे रहीं हैं लेकिन दूसरी कविता के अंतिम छोर ने तो ह्रदय को झकझोर कर रख दिया। एक कवि की दो पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं -
इक वो दुनियां है जो चीखों को गीत समझती है
इक वो दुनियां है जो गीतों को चीख समझती है
चीखों को गीत समझने वाले लोग तो दुनियां में भरे पड़े हैं, हम कवियों का दर्द तो यह है कि गीतों को चीख समझने वाले लोग कहाँ से आयें।

पर गज़लकार संजीव गौतम को अरुणा की कविताओं की अपनी अर्थवत्ता के बावजूद  सब कुछ संयत नहीं लगा। वे कहते हैं , अरूणा जी  की कविताओं का स्वर वैयक्तिक ज्यादा है लेकिन  यह हमारे समय का एक सच है। कुछ भाषिक प्रयोग के अंश सुखद रूप से चौंकाते हैं। अचानक हड़बड़ाहट या घबराहट में आ जाने वाले पसीने के लिए किया गया प्रयोग ‘शिराओं का रक्त उलीचने लगता है नमक और जल‘ और इस प्रयोग की चित्रात्मकता तथा ध्वन्यात्मकता देखिए ‘कानों के लिए तो सस्वर पाठ करना होगा आंसुओं का..‘ और ये, ‘तभी दूर आकाश में यूकेलिप्टस हिले....‘ वाह बहुत खूब। चित्रात्मक भाषा कवि की सबसे बड़ी पूंजी है। बहुत कुछ अच्छा दिखा इन कविताओं में लेकिन ये गद्य और पद्य के बीच की एक बारीक विभाजन रेखा का अतिक्रमण करतीं भी दिखीं। छन्दमुक्त कविताओं के सृजन में  यदि आप भाषिक रूप से सतर्क नहीं हैं तो कविता के गद्य हो जाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। छन्द मुक्त कविता और गद्य के बीच बहुत स्पष्ट अन्तर नहीं है। पहली कविता के पहले खंड में यह विभाजक रेखा का अतिक्रमण बार-बार दीखता है।

ब्रिटेन के मशहूर कवि और गज़लगो प्राण शर्मा ने कहा कि अरुणा राय की कविताओं में साफ-सुथरी भाषा है और साफ-सुथरे भाव भी। उनमें एक अच्छा कवि छुपा हुआ है, वे बहुत आगे जायेंगी। प्रसिद्ध कवयित्री हरकीरत हीर के मुताबिक अरुणा जी की रचनायें ह्रदय से लिखी गयी हैं, इसलिए पाठक को बरबस खींच लेतीं हैं। कवि, राजनीतिक एक्टिविस्ट और आगरा विश्व विद्यालय में शिक्षक डा सी पी राय ने कहा कि अरुणा जी कि कविताये बहुत गंभीर है, वे  जो कहना चाहती हैं, कहने में सफल रही है। इनकी कवितायें दिल को छूने वाली है। कवि और गज़लकार मदन मोहन 'अरविन्द'  अरुणा की कविताओं में मानवीय संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति देखते हैं। कवयित्री कविता रावत का मानना है कि अरुणा जी ने मानवीय मन की भावनाओं को बखूबी बांधा है।

रचनात्मक प्रतिभा की धनी संगीता स्वरूप कहती हैं, मन के भावों को बहुत सहजता से कहा है, आधुनिक प्रेम का चित्र खींचा है  और मन की संवेदनाओं को शब्दों में खूबसूरती से ढाला है। प्रसिद्ध चर्चाकार अनामिका जी कहती हैं,  मन के उदगारों को कोमलता से कुछ शब्द दे दिए हैं। कवि और आलोचक राजेश उत्साही  का मानना है कि अरूणा की कविता में एक तरह की अराजकता है। शब्‍दों की अराजकता, विचारों की अराजकता। अराजकता ऐसी है जो आपको अचंभित करती है,परेशान भी और मुग्‍ध भी। आज का युवा मन प्रेम को किस तरह महसूस करता है, वह अरूणा की पहली कविता में सहज रूप से उभर आया है। मोबाइल नामक यंत्र हमारी संवेदनाओं को किस हद तक भौंथरा बना सकता है, यह उनकी दूसरी कविता में है। तीसरी कविता में अनजाने ही यूकिलिप्‍टस का जिक्र आ गया है। संयोग ही है कि यूकिलिप्‍टस संस्‍कृति ने जमीन का पानी तो सुखाया ही है,हमारी आंखों का पानी भी अब सूखता चला है। यह भी क्‍या संयोग ही है कि पिछले हफ्ते इसी जगह प्रस्‍तुत मेरी एक कविता में भी इसी विडम्‍बना का जिक्र था। सचमुच अरूणा से अपेक्षाएं और बढ़ गई हैं। वन्दना जी को लगता है कि राजेश की समीक्षा के बाद उनके लिये कहने को कुछ नहीं बचा है। प्रतुल वशिष्ठ कहते हैं कि प्यार के इर्द-गिर्द पवित्र, मासूम, निर्दोष विशेषणों को सजाना प्यार के प्रति दृष्टिकोण  निर्मित करना है। हम या तो अपने प्रेम की कलुषता को छिपाने के लिए इन शब्दों को ओढ़ते हैं, या फिर इन शब्दों को बिछाकर प्यार की साधना करते दर्शाते हैं। आकांक्षा जी और मिथिलेश दुबे को भी कवितायें दिल छूने वाली लगीं।




व्यंग्यकार अविनाश वाचस्पति की प्रतिक्रियाओं में मैंने प्रतिकविता के तत्व पाये, इसलिये उनका उल्लेख करना जरूरी होगा।  उन्होंने एक खास बात भी कही, रचना वही है, जो रचने केलिये बाध्य कर दे। उनकी प्रतिकविताओं को उसी तरह रख रहा हूं।
1. मोबाइल से प्‍यार/ उससे खींचे चित्रों से प्‍यार/ संदेशों से प्‍यार/ चाहे वे भेजे गए हों/ चाहे वे पाए गए हों/ चाहे खो गए हों/ पर प्‍यार सबसे है। हवा, पानी, धूप/ जैसा हो गया है मोबाइल/ ऐसा लगता है/ प्रकृति में ही ढला था/  अब सामने आया है/ इसने सबको लुभाया है। इसका प्‍यार अलग भी है/ इसे रिचार्जिंग चाहिए/ ऊष्‍मा बैटरी की चाहिए/ बिना इसके / न प्‍यार चलता है/ न प्‍यार पलता है/ इसके झांसे में आ जाए/ वो कभी न संभलता है / पर यह जीवन है/ क्‍यों जीवन ऐसे ही चलता है। 2. आंसुओं का सस्‍वर पाठ/ बरसात है/ उसका साथ है/ आप उसे किस रूप में/ स्‍वीकारते हैं/ बादल बनते हैं खुद / या बन जाते हैं टब/ जिसमें भर जाए पानी/ आंखों का सारा पानी/
जो आंसू बन बहने लगता है। 3. आकाश में यूकेलिप्‍टस/ यू के से लिपटना नहीं होगा/ जरूर कोई पौधा ही होगा/ नहीं जानता अर्थ/ इसलिए अनर्थ गढ़ा है/ शब्‍दकोश में तलाशूं/ इस पचड़े में नहीं पड़ता/ मन से पढ़ता हूं/ जिन शब्‍दों को/ मैं समझ नहीं पाता/ याद फिर भी/ मुझे रह नहीं पाता/ बरसात हो और/ ले गया होऊं छाता।


शनिवार को ओम प्रकाश नदीम की गज़लें
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हां, आज ही, जरूर आयें

 विजय नरेश की स्मृति में आज कहानी पाठ कैफी आजमी सभागार में शाम 5.30 बजे जुटेंगे शहर के बुद्धिजीवी, लेखक और कलाकार   विजय नरेश की स्मृति में ...